पत्नी और माँ की जिम्मेदारियों के बीच खुद को तलाशती एक औरत के दिल की आवाज़...
खुद ही से मैं नज़रें चुराने लगी हूं,
उन यादों से दामन छुड़ाने लगी हूँ ।
खुद ही से खुद ही का पता पूछती हूँ,
न जाने कहाँ मैं विलीन हो चुकी हूँ ।
अरमानों को अपने दबाने लगी हूँ,
पहचान अपनी भुलाने लगी हूँ ।
भटकने लगी राह मंज़िल की अपनी,
कहूँ क्या किधर थी, किधर को चली हूँ ।
मिल जाये न साथी कोई बीते दिनों का,
ऐसे लोगों से अब मैं कतराने लगी हूँ ।
उलझनें मेरी खुद ही सुलझने लगी हैं,
सोयी उम्मीदें फिर से जगने लगी हैं ।
जमती धूलों को अब मैं हटाने लगी हूँ,
राह मंज़िल की अपनी बनाने लगी हूँ ।
किसी मोड़ पर मिल ही जायेगी 'तृप्ति' ,
रुके कदमों को अब मैं बढ़ाने लगी हूँ ।
--तृप्ति श्रीवास्तव
खुद ही से मैं नज़रें चुराने लगी हूं,
उन यादों से दामन छुड़ाने लगी हूँ ।
खुद ही से खुद ही का पता पूछती हूँ,
न जाने कहाँ मैं विलीन हो चुकी हूँ ।
अरमानों को अपने दबाने लगी हूँ,
पहचान अपनी भुलाने लगी हूँ ।
भटकने लगी राह मंज़िल की अपनी,
कहूँ क्या किधर थी, किधर को चली हूँ ।
मिल जाये न साथी कोई बीते दिनों का,
ऐसे लोगों से अब मैं कतराने लगी हूँ ।
उलझनें मेरी खुद ही सुलझने लगी हैं,
सोयी उम्मीदें फिर से जगने लगी हैं ।
जमती धूलों को अब मैं हटाने लगी हूँ,
राह मंज़िल की अपनी बनाने लगी हूँ ।
किसी मोड़ पर मिल ही जायेगी 'तृप्ति' ,
रुके कदमों को अब मैं बढ़ाने लगी हूँ ।
--तृप्ति श्रीवास्तव
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